Matrimony

|| वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ||

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हिन्दु विवाह व्यवस्था में गोत्र-उपगोत्र का महत्व

ऐसा देखा गया है कि विवाह के अवसर पर ही गोत्र की दरख परख होती है लेकिन गोत्र का व्यावहारिक ज्ञान क्या है ? गोत्र का अर्थ क्या है ? गोत्र के लाभ-हानि क्या है, शायद बहुत कम लोग जानते होंगे । गोत्र मानव  जिनेटिक्स फेक्टर से संबंध रखता है, जिसमें प्रत्येक पीढ़ी में रक्त कण में कम होते हैं । अत: प्रत्येक परिवार को गोत्र के विषय में जानकारी होना आवश्यक है ।

हिन्दु विवाह एक संस्कार हैं, यह एक शाश्वत बंधन माना जाता हैं जिसमें पति पत्नि के कर्तव्य सन्युक्त होते हैं । दोनों आध्यात्मिक अनुशासन में रहकर एक इकाई बन जाते हैं । मनु ने इस तथ्य को इन शब्दों में व्यक्त किया है पति पत्नि और संतान तीनों मिलकर एक पुरुष कहलाता है । इसीलिए विद्वान कहते हैं ।कि जो पति है वहि पत्नि है । पति पत्नि एक दुसरे से अलग नहीं हो सकते । (मनु स्मृति)

वर वधु का विवाह तय करते समय उनके सामाजिक वर्ग तथा वंश का विशेष ध्यान रखा जाता है । इनमें गोत्र, पिण्ड, प्रवर, टोटम प्रमुख हैं । विशिष्ट समाजिक समुदाय एवं वंशगत पीढ़ी बहिर्विवाह के निर्णयक तत्व माने गये हैं । हिन्दु समाज में सगोत्र सप्रवर और सपिण्ड विवाह निषिध्द हैं ।

 गोत्र:- धर्मशास्त्रकारों ने एक ही गोत्र और पिण्ड में परस्पर विवाह करना वर्जित माना है । हिन्दुओं में अपनी जाति के भीतर ही भिन्न गौत्र, प्रवर और पिण्ड में विवाह किया जाता है । प्रत्येक जाति में उनके विभिन्न गोत्र ऐसे विख्यात पुरुष के नाम पर भी प्रयुक्त होता है जिनके नाम वंश या कुल की संज्ञा दी जाती है । जिसके नाम पर वंश या कुल का विकास होता है । ऋषियों के नाम पर भी गोत्रों की चर्चा की गई है । एक ही स्थान या क्षेत्र में रहने वाले व्यक्तियों के समुह को भी एक गोत्र का सदस्या माना गया है ।

धर्मशास्त्र का इतिहास के रचियता भारतरत्न डॉ. पांडुरंग काने ने ऋग्वेद एवं कौशिकसुत्र में वर्णित गोत्र का अर्थ बतलाते हुए कहा है कि गोत्र का अर्थ समुह से है ।  समुह से मनुऔं का दल निकलता है । एक स्थान पर एक ही पूर्वज के वंशज के अर्थ में भी गोत्र शब्द प्रयुक्त अर्थ है अथर्ववेद में विश्व गोत्र्य:” (सभी कुलों से संबंधित) शब्द आया है । यहाँ गोत्र शब्द का सुस्पष्ट अर्थ है । आपस में संबंधित मनुष्यों का एक दलकौशिकसुत्र में गोत्र का निश्चयात्मक अर्थ है मनुष्यों का एक दल

 टोटम:- भारतीय जन जातियों में टोटम बहिविर्वाह के नियम का प्रचलन पाया जाता है । जन जातियों के विकास काल में वे पर्वतों, नदियों, पेड़-पौधों, कंदराऔं, पशु-पक्षियों के सहारे रहकर फले-फूले व विकसित हुए । इन सबमें विश्वास करने वाले और उससे अपने आपको संबधित मानने वाले एक सामान्य टोटम पर विश्वास करते हैं । ऐसे सामान्य टोटस में विकास करने वाले लोग आपस में वैवाहिक संबध में नहीं कर सकते । अपने टोटस के अतिरिक्त अन्य लोग के साथ ही वे विवाह कर सकते हैं ।

 प्रवर:- हिन्दु विवाह में प्रवर का भी ध्यान रखा जाता है । प्रवर में श्रेष्ठ पूर्वजों या ऋषि के पूर्वज के रुप में उसके आध्यात्मिक, सांस्कारिक और सामाजिक व्यवस्थाओं में आबाद होने के कारण उनके प्रवर के जनक के रुप में विकसित हुए । इसीलिए कहा गया है कि कोई भी पुरुष या स्त्री जो एक ही ऋषि के प्रवर से सम्बन्धित हो, विवाह नहीं करेगा । दुसर शब्दों के में यह कहा जाए कि ऋषि के या गुरु के शिष्य रुप में आबाद होने वाले स्त्री पुरुष गुरु माई बहिन के रुप में मान्य होने से धर्मशास्त्रकारों ने ऐसे विवाह को वर्जित माना है ।“ 

 सपिण्ड:- हिन्दु समाज में सपिण्ड विवाह भी वर्जित है माना गया है । सपिण्ड का तात्पर्य समाज रक्त कणों से है । व्यक्तियों से सपिण्ड का संबंध इस तथ्य से उत्पन्न होता है कि दोनों में एक ही शरीर के अंश हैं । पुत्र का पिता के साथ सपिण्ड संबंध इसलिए है कि पिता के शरीर के रक्तकण उसके शरीर में वर्तमान हैं । इसी प्रकार पितामह, प्रपितामह आदि से उसका सपिण्ड संबंध है । पुत्र का माता के साथ सपिण्ड संबंध इसलिए है कि उसमें माता के शरीर का अंश विद्यमान है । इसी प्रकार मातामह, मातुल, मातृश्वसा आदि से उसका सपिण्ड संबंध है । अर्थात जिसमें अपने पूर्वजों का रक्त है वह सपिण्ड है । ऐसे एक ही पिण्ड के लोगों का एक ही पिण्ड में विवाह नहीं हो सकता । रक्त संबंध से आबध्द सम्बंधी सपिण्ड के अंतर्गत आते हैं । इसलिए पिता से सात पीढ़ी और माता से पांच पीढ़ी के अंतर से लोग सपिण्ड कहे जाते हैं । विवाह निश्चित करते समय इसका ध्यान रखना अनिवार्य है । वर से सात पीढ़ी और कन्या से पांच पीढ़ी का अंतर अपेक्षित माना गया है । इस नियम से चचेरे, ममेरे, फुफेरे, मौसेरे भाई बहिन के विवाह पर प्रतिबन्ध लगाया गया है । गौतम के मतानुसार सात और पांच के बाद ही सपिण्डता से निवृत्ति मिलती है इससे पहले नहीं । जिनेटिक्स सिध्दांत के मतानुसार प्रत्येक पीढ़ी में 50 प्रतिशत रक्तकण में जीन्स शरीर में (सपिण्ड में) कम होते जाते हैं । इसलिए प्रापितामह एवं मातृश्वसा की पीढ़ी आने तक सपिण्डता से निवृत्ति हो जाती है ।

 

संकलनकर्ता

डाँ. लखनलाल ताम्रकार
कृष्ण बिहार कॉलोनी, सागर म.प्र.
मोबाइल नम्बर:  09406531646
फोन नम्बर:  07582-236395

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 बावन गोत्रों के नाम से विख्यात हैहयवंश समाज का क्षेत्र राजस्थान के पूर्वी भाग में फेले हुये जयपुर, सीकर, झुन्झुनू, अलवर, भरतपुर, टोंक, अजमेर, भीलवाड, सवाईमाधोपुर, कोट, जिलों के अतिरिक्त इन जिलों से सम्बन्ध प्रांत मध्यप्रदेश, रतलाम, इन्दौर, गुना, उज्जैन, तथा उत्तरप्रदेश के आगरा, मथुर, हाथरस, मेरठ, क्षेत्रों एवं हरियाणा, पंजाब, दिल्ली के हैहयवंशी क्षत्र‍िय समाज से सम्बन्ध ठठेरा-कसेरा समाज के निवासी अपने को को बावन गोत्रों की परिधि में मानते हैं । 

कंसार क्षत्र‍िया (ठठेरों) के यही 52 गोत्र हैं । इन्हीं के अन्तगर्त अब तक इस जाति के ब्याह सम्बन्ध होते चले आ रहे हैं । इन गोत्रो में अपना गोत्र, माता का गोत्र, दादी का गोत्र तथा नानी के गोत्र को छोड़कर सम्बन्ध किये जाते थे, परन्तु अब केवल अपना गोत्र तथा माता का गोत्र ही छोड़कर सम्बन्ध किये जा रहे हैं ।   

 

कंसार ठठेरे क्षत्र‍िया जाति के 52 गोत्र निन्म हैं:-

 4 प्रकार के सौनपालिया    :- 1. खोरीवाल 2. माचेडीवाल 3. सजावलपुरिया ४. बनेतीवाल

4 प्रकार के अमरसरिया    :- 1. मोतीचुंगा 2. खलचुंगा 3. कूलवाल 4. व्यानिया

4 प्रकार के मैदराडिया      :- 1. फतेपुरिया 2. चारस 3. जोबनेरिया 4. कालाडेर

4 प्रकार के बागड़ी            :- 1. बबेरवाल 2. चांवडिया 3. चरखीवाल 4. मधौनिया

4 प्रकार के मोटा              :- 1. ग़ाढा 2. पहाड़वा 3. सीदमुखी 4. धार-धरेदिया

4 प्रकार के भालिया          :- 1. गरावडिया 2. खैरथलिया 3. वागेडी 4. बहादुरपुरी

4 प्रकार के खेतपालिया     :- 1. हारिया 2. बड़ौदिया 3. मसालीपाल 4. गवालेरिया

6 प्रकार के अतलसिया     :- 1. मेवाती 2. कुनकुटिया 3. वरनवाल 4. छैछारिया 5. पाटनिया    6. गन्धोरा

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 35. नरेडी, 36. झाझरी, 37. पंचपाडिंया 38. पचवरिया 39. माढनिया 40. मनदेरा 41. खाँन-खपरा, 42. रावत, 43. बागड़ी, 44. लिलौरिया, 45. मोहरिया, 46. मोडिया अनंत, 47. गडेसरिय, 48. डहरवाल, 49. खुलाखँपरा, 50. महलस, 51. लौगिय, 52, माधवान.

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